नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 56 दिन में लोकायुक्त के गठन के निर्देश दिए हैं. मजेदार बात तो यह है कि पिछले 10 साल से चार मुख्य मंत्री लोकायुक्त नहीं बना पाए हैं.उत्तराखंड में मजबूत लोकायुक्त का गठन हो इसको लेकर एक याचिका नैनीताल हाईकोर्ट में हल्द्वानी निवासी रविशंकर जोशी की तरफ से दायर की गई थी.नैनीताल हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को यह निर्देश दिए हैं.
उत्तराखंड में लोकायुक्त को लेकर राजनीतिक माहौल हमेशा से ही गर्म रहा है . राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने अपने शासनकाल में राज्य को पहला लोकायुक्त दिया. जस्टिस सैयद रज़ा अब्बास को लोकायुक्त की जिम्मेदारी दी गई. तत्कालीन राज्य सरकार ने लोकायुक्त कार्यालय का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया. 2009 में जब जस्टिस अब्बास का कार्यकाल समाप्त हुआ तो जस्टिस एमएम घिल्डियाल को लोकायुक्त की जिम्मेदारी तत्कालीन मुख्यमंत्री मेजर जनरल बीसी खंडूरी ने दी.कई मामले लोकायुक्त कार्यालय में राज्य सरकार की शिकायत के संदर्भ में पहुंचे भी.
लोकायुक्त कार्यालय से मिली सूचना के मुताबिक लोकायुक्त कार्यालय को जून 2022 तक भ्रष्टाचार की लगभग साढ़े आठ हजार शिकायतें मिली थी.इनमें से लगभग 7000 शिकायतों का निपटारा भी लोकायुक्त के द्वारा किया जा चुका था. 2013 से जून 2022 के बीच भी लोकायुक्त कार्यालय को लगभग 1000 शिकायतें मिली है. लेकिन इनका समाधान इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि इस दौरान राज्य में लोकायुक्त रहा ही नहीं. लोकायुक्त के ना बनाए जाने पर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही जनता निशाने पर रहे हैं. 2013 से 2017 तक राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. इस दौरान कांग्रेस ने लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की. 2012 से 2014 तक राज्य में विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री थे. उस समय विजय बहुगुणा कांग्रेस में हुआ करते थे. फरवरी 2014 से लेकर मार्च 2017 तक हरीश रावत राज्य के मुख्यमंत्री रहे . कांग्रेस के इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने भी लोकायुक्त को लेकर कोई फैसला नहीं लिया.
2017 के बाद से राज्य में बीजेपी की सरकार है और 6 साल में बीजेपी की सरकार ने भी लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है. लेकिन 2013 से 2023 तक का सफर राज्य की राजनीति ने तय कर लिया, मगर अभी तक राज्य को लोकायुक्त नहीं मिला. आश्चर्य तो इस बात का है कि बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में लोकायुक्त के गठन का ऐलान किया था और सरकार बनने के 100 दिन में ही लोकायुक्त देने का वादा किया था. वह वादा भी ठंडे बस्ते में चला गया है . 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने लोकायुक्त बिल को विधानसभा में प्रस्तुत किया लेकिन उसे पास नहीं किया गया. सरकार ने लोकायुक्त बिल को विधानसभा की प्रवर समिति को चर्चा के लिए भेज दिया. लेकिन 2017 से 2023 तक विधानसभा की प्रवर समिति अपने सुझाव सहित इस बिल को वापस नहीं कर पाई है .
वास्तव में लोकायुक्त का जो मजबूत कानून 2011-12 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मेजर जनरल बीसी खंडूरी ने तैयार करवाया था, उसमें लोकायुक्त के दायरे में मुख्यमंत्री को भी शामिल कर लिया गया था और यही सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि कोई भी मुख्यमंत्री किसी लोकायुक्त के दायरे में नहीं आना चाहता. यही कारण है कि पिछले 10 साल में 4 मुख्यमंत्रियों ने उत्तराखंड में शासन किया और किसी भी मुख्यमंत्री ने लोकायुक्त को नियुक्त करने की जिम्मेदारी नहीं निभाई.आश्चर्य तो इस बात का है कि पिछले 10 साल से जिस कार्यालय में लोकायुक्त है ही नहीं, उस कार्यालय पर राज्य सरकार ने 30 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं .
नैनीताल हाईकोर्ट ने जब पिछली बार सुनवाई की थी तो राज्य सरकार को नोटिस जारी करते हुए उसने एक शपथ पत्र दायर करने के लिए कहा था. नैनीताल हाईकोर्ट ने दिशा निर्देश दिए थे कि सरकार बताए कि लोकायुक्त कार्यालय पर कितना पैसा खर्च हो चुका है, और हर वर्ष कितना पैसा खर्च होता है. वर्षवार दिए गए ब्योरे के मुताबिक लगभग 30 करोड़ रुपए पिछले 10 साल में लोकायुक्त कार्यालय पर खर्च हो गए. कोर्ट ने इस पर हैरानी जताई और इसके बाद हर तरीके के खर्च पर रोक लगा दी है जो लोकायुक्त कार्यालय के संदर्भ में किया जाता है. इसके साथ ही निर्देश दिए हैं कि 56 दिन के भीतर राज्य सरकार लोकायुक्त के गठन का रास्ता साफ करें। अब देखना यह मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी क्या लोकायुक्त की नियुक्ति करते हैं वह भी इसे डालने के लिए अदालत का रुख करते हैं।